Tuesday 1 May 2018

कुछ अलबेलियाँ, कुछ सहेलियाँ

चार दशक पहले, एक विद्यालय में मिलीं, कुछ अलबेलियाँ,
थीं  कुछ चंचल , कुछ नादान और थीं कुछ शरमीलियाँ,
कुछ तो थीं बड़ी पढ़ाकू,कुछ को सदा रहती थीं  बेफिकरियाँ, 
अपने अपने गुट में थी वो रहतीं, करतीं फिरतीं, अठखेलियाँ। 

मौसम बदले, कुछ आये नए पंछी, कुछ ने मारी उडारियाँ,
बढ़ती उम्र के बनते बिगड़ते रिश्तों में, पनपी खूब यारियाँ,
फिर  सबने अपनी अपनी मन्ज़िल पाने की, करलीं  तैयारियाँ,
कुछ के बीच हुए गहरे रिश्ते और कुछ के बीच बढ़ी दूरियाँ। 

फिर सबने ज़ोर लगा कर पूरी कीं अपनी अपनी पढ़ाइयाँ,
देर सवेर फिर सबने बसाई,अपनी अपनी घर ग्रहस्थियाँ,
व्यस्त हो गयीं  वो सब, खूब उठाने लगी अपनी ज़िम्मेदारियाँ,
पर कभी-कभी याद करती रहीं वो, भूली-बिसरि कहानियां। 

समय गुज़रा, उम्र गुज़री, बनने लगी वो नानियाँ और दादियां,
उसी दौर में बहने लगी, फेसबुक और व्हाट्सप्प की रावनियाँ,
हुईं बेचैन सब जानने को, सब एक दूजे के किस्से व् कहानियाँ ,
देखो अब वो अक्सर टच में रहने को हुई जा रहीहैं दीवानियाँ। 
शुभा सागर 





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